danik udya
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संवाद करते बात करते
रुंझुनाते गुनगुनाते
अस्तांचल सूरज को हाथ हिलाते
पत्ते खिल खिला रहे थे .
मैं ठाव गया अरिता !
-तुम्हरी- याद आ गई ,
कहाँ से निगाहो में
आ पड़े ये पत्ते !
मुझे देखकर मुझमे देखने लगे थे
ये पत्ते !
छाँव को छीलकर
भूजे में नमक मिलाती तुम
आँखों में बहे जा रही थी
भूखे शहर में
भूखी
मेरे आंचलों वाली अरिता !
आज- तुम्हरी- याद आ गई .
पत्तों की आवाज़ो में मिल गई थी तुम ,
ढेर सारे पानी में थोड़ा दूध मिलाकर
बच्चे को पिलाती तुम
इन पत्तों की तरह खिल खिलाकर
हमेशा
मुझसे मिलती थी .
तुम!
तमाम पत्तियों को कूट पीस कर
कुछ न कुछ बना लेने वाली अरिता !
आज- तुम्हरी- याद आ गई ..
!!!!!!!!!!!!!!!!!!
डॉ डी के पाण्डेय
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